जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / भाग 5
उनके आलोक-वलय में जग मैंने देखा — जन-जन के संघर्षों में विकसित परिणत होते नूतन मन का । वह अन्तस्तल . . . . . . संघर्ष-विवेकों की प्रतिभा अनुभव-गरिमाओं की आभा वह क्षमा-दया-करुणा की नीरोज्ज्वल शोभा सौ सहानुभूतियों की गरमी, प्राणों में कोई बैठा है कबीर मर्मी ये पहलू-पांखें, पंखुरियाँ स्वर्णोज्जवल नूतन नैतिकता का सहस्र-दल खिलता है, मानव-व्यक्तित्व-सरोवर में !! उस स्वर्ण-सरोवर का जल चमक रहा देखो उस दूर क्षितिज-रेखा पर वह झिलमिला रहा । ताना-बाना मानव दिगंत किरनों का मैंने तुममें, जन-जन में जिस दिन पहचाना उस दिन, उस क्षण नीले नभ का सूरज हँसते-हँसते उतरा मेरे आंगन, प्रतिपल अधिकाधिक उज्ज्वल हो मधुशील चन्द्र था प्रस्तुत यों मेरे सम्मुख आया मानो मेरा ही मन । वे कहने लगे कि चले आ रहे तारागण इस बैठक में, इस कमरे में, इस आंगन में — जब कह ही रहा था कि कब इन्हें बुलाया है मैंने, तब अकस्मात् आये मेरे जन, मित्र, स्नेह के सम्बन्धन नक्षत्र-मंडलों में से तारागण उतरे मैदान, धूप, झरने, नदियाँ सम्मुख आयीं, मानो जन-जन के जीवन-गुण के रंगों में है फैल चली मेरी दुनिया की या कि तुम्हारी ही झाँईं । तुम क्या जानो मुझको कितना अभिमान हुआ सन्दर्भ हटा, व्यक्ति का कहीं उल्लेख न कर, जब भव्य तुम्हारा संवेदन सबके सम्मुख रख सका, तभी अनुभवी ज्ञान-संवेदन की दुर्दम पीड़ा झलमला उठी !!

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