जब प्रश्न-चिह्न बौखला उठे / भाग 1
जीवन के प्रखर समर्थक-से जब प्रश्न चिन्ह बौखला उठे थे दुर्निवार, तब एक समंदर के भीतर रवि की उद्भासित छवियों का गहरा निखार स्वर्णिम लहरों सा झल्लाता झलमला उठा; मानो भीतर के सौ-सौ अंगारी उत्तर सब एक साथ बौखला उठे तमतमा उठे !! संघर्ष विचारों का लोहू पीड़ित विवेक की शिरा-शिरा में उठा गिरा, मस्तिष्क तंतुओं में प्रदीप्त वेदना यथार्थों की जागी !! मेरे सुख-दुख ने अकस्मात् भावुकतावश सुख-दुख के चरणों की मन ही मन यों की 'पालागी' — कण्ठ में ज्ञान संवेदन के, आंसू का कांटा फंसा और मन में यह आसमान छाया, जिस में जन-जन के घर-आंगन का सूरज भासमान छाया झुरमुर-झुरमुर वह नीम हँसा, चिड़िया डोली, फर-फर आंचल तुमको निहार मानो कि मातृ-भाषा बोली — जिनसे गूंजा घर-आंगन खनके मानों बहुओं की चूड़ी के कंगन । मैं जिस दुनिया में आज बसा, जन-संघर्षों की राहों पर ज्वालाओं से माँओं का बहनों का सुहाग सिन्दूर हँसा बरसा-बरसा । इन भारतीय गृहिणी-निर्झरिणी-नदियों के घर-घर के भूखे प्राण हँसे । दिल के आंसू के फव्वारे लेकिन यह मेरे छन्द बावरे बुरी तरह यों अकुलाकर, बूढ़े पितृश्री के चरणों में लोट-पोटकर, ऐसी पावन धूल हुए — बहना के हिय की तुलसी पर घन छाया कर मंजरी हुए, भाई के दिल में फूल हुए ।

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