धीरे धीरे उतर क्षितिज से
धीरे धीरे उतर क्षितिज से आ वसन्त-रजनी! तारकमय नव वेणीबन्धन शीश-फूल कर शशि का नूतन, रश्मि-वलय सित घन-अवगुण्ठन, मुक्ताहल अभिराम बिछा दे चितवन से अपनी! पुलकती आ वसन्त-रजनी! मर्मर की सुमधुर नूपुर-ध्वनि, अलि-गुंजित पद्मों की किंकिणि, भर पद-गति में अलस तरंगिणि, तरल रजत की धार बहा दे मृदु स्मित से सजनी! विहँसती आ वसन्त-रजनी! पुलकित स्वप्नों की रोमावलि, कर में ही स्मृतियों की अंजलि, मलयानिल का चल दुकूल अलि! चिर छाया-सी श्याम, विश्व को आ अभिसार बनी! सकुचती आ वसन्त-रजनी! सिहर सिहर उठता सरिता-उर, खुल खुल पड़ते सुमन सुधा-भर, मचल मचल आते पल फिर फिर, सुन प्रिय की पद-चाप हो गयी पुलकित यह अवनी! सिहरती आ वसन्त-रजनी!

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