पुलक पुलक उर, सिहर सिहर तन
पुलक पुलक उर, सिहर सिहर तन, आज नयन आते क्यों भर-भर! सकुच सलज खिलती शेफाली, अलस मौलश्री डाली डाली; बुनते नव प्रवाल कुंजों में, रजत श्याम तारों से जाली; शिथिल मधु-पवन गिन-गिन मधु-कण, हरसिंगार झरते हैं झर झर! आज नयन आते क्यों भर भर? पिक की मधुमय वंशी बोली, नाच उठी अलिनी भोली; अरुण सजल पाटल बरसाता तम पर मृदु पराग की रोली; मृदुल अंक धर, दर्पण सा सर, आज रही निशि दृग-इन्दीवर! आज नयन आते क्यों भर भर? आँसू बन बन तारक आते, सुमन हृदय में सेज बिछाते; कम्पित वानीरों के बन भी, रह हर करुण विहाग सुनाते, निद्रा उन्मन, कर कर विचरण, लौट रही सपने संचित कर! आज नयन आते क्यों भर भर? जीवन-जल-कण से निर्मित सा, चाह-इन्द्रधनु से चित्रित सा, सजल मेघ सा धूमिल है जग, चिर नूतन सकरुण पुलकित सा; तुम विद्युत बन, आओ पाहुन! मेरी पलकों में पग धर धर! आज नयन आते क्यों भर भर?

Read Next