श्रृंगार कर ले री सजनि!
श्रृंगार कर ले री सजनि! नव क्षीरनिधि की उर्म्मियों से रजत झीने मेघ सित, मृदु फेनमय मुक्तावली से तैरते तारक अमित; सखि! सिहर उठती रश्मियों का पहिन अवगुण्ठन अवनि! हिम-स्नात कलियों पर जलाये जुगनुओं ने दीप से; ले मधु-पराग समीर ने वनपथ दिये हैं लीप से; गाती कमल के कक्ष में मधु-गीत मतवाली अलिनि! तू स्वप्न-सुमनों से सजा तन विरह का उपहार ले; अगणित युगों की प्यास का अब नयन अंजन सार ले? अलि! मिलन-गीत बने मनोरम नूपुरों की मदिर ध्वनि! इस पुलिन के अणु आज हैं भूली हुई पहचान से; आते चले जाते निमिष मनुहार से, वरदान से; अज्ञात पथ, है दूर प्रिय चल भीगती मधु की रजनि! श्रृंगार कर ले री सजनि?

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