अभिमान
छाया की आँखमिचौनी मेघों का मतवालापन, रजनी के श्याम कपोलों पर ढरकीले श्रम के कन, फूलों की मीठी चितवन नभ की ये दीपावलियाँ, पीले मुख पर संध्या के वे किरणों की फुलझड़ियाँ। विधु की चाँदी की थाली मादक मकरन्द भरी सी, जिस में उजियारी रातें लुटतीं घुलतीं मिसरी सी; भिक्षुक से फिर जाओगे जब लेकर यह अपना धन, करुणामय तब समझोगे इन प्राणों का मंहगापन! क्यों आज दिये जाते हो अपना मरकत सिंहासन? यह है मेरे चरुमानस का चमकीला सिकताकन। आलोक जहाँ लुटता है बुझ जाते हैं तारा गण, अविराम जला करता है पर मेरा दीपक सा मन! जिसकी विशाल छाया में जग बालक सा सोता है, मेरी आँखों में वह दु:ख आँसू बन कर खोता है! जग हँसकर कह देता है मेरी आँखें हैं निर्धन, इनके बरसाये मोती क्या वह अब तक पाया गिन? मेरी लघुता पर आती जिस दिव्य लोक को व्रीड़ा, उसके प्राणों से पूछो वे पाल सकेंगे पीड़ा? उनसे कैसे छोटा है मेरा यह भिक्षुक जीवन? उन में अनन्त करुणा है इस में असीम सूनापन!

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