आना
जो मुखरित कर जाती थी मेरा नीरव आवाहन, मैं ने दुर्बल प्राणों की वह आज सुला दी कम्पन! थिरकन अपनी पुतली की भारी पलकों में बाँधी, निस्पन्द पड़ी हैं आँखें बरसाने वाली आँखी। जिसके निष्फल जीवन ने जल जल कर देखीं राहें! निर्वाण हुआ है देखो वह दीप लुटा कर चाहें! निर्घोष घटाओं में छिप तड़पन चपला की सोती, झंझा के उन्मादों में घुलती जाती बेहोशी। करुणामय को भाता है तम के परदों में आना, हे नभ की दीपावलियों! तुम पल भर को बुझ जाना!

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