अतृप्ति
चिर तृप्ति कामनाओं का कर जाती निष्फल जीवन, बुझते ही प्यास हमारी पल में विरक्ति जाती बन। पूर्णता यही भरने की ढुल, कर देना सूने घन; सुख की चिर पूर्ति यही है उस मधु से फिर जावे मन। चिर ध्येय यही जलने का ठंढी विभूति बन जाना; है पीड़ा की सीमा यह दुख का चिर सुख हो जाना! मेरे छोटे जीवन में देना न तृप्ति का कणभर; रहने दो प्यासी आँखें भरतीं आंसू के सागर। तुम मानस में बस जाओ छिप दुख की अवगुण्ठन से; मैं तुम्हें ढूँढने के मिस परिचित हो लूँ कण कण से। तुम रहो सजल आँखों की सित असित मुकुरता बन कर; मैं सब कुछ तुम से देखूँ तुमको न देख पाऊँ पर! चिर मिलन विरह-पुलिनों की सरिता हो मेरा जीवन; प्रतिपल होता रहता हो युग कूलों का आलिंगन! इस अचल क्षितिज रेखा से तुम रहो निकट जीवन के; पर तुम्हें पकड़ पाने के सारे प्रयत्न हों फीके। द्रुत पंखोंवाले मन को तुम अंतहीन नभ होना; युग उड़ जावें उड़ते ही परिचित हो एक न कोना! तुम अमरप्रतीक्षा हो मैं पग विरहपथिक का धीमा; आते जाते मिट जाऊँ पाऊँ न पंथ की सीमा। तुम हो प्रभात की चितवन मैं विधुर निशा बन आऊँ; काटूँ वियोग-पल रोते संयोग-समय छिप जाऊँ! आवे बन मधुर मिलन-क्षण पीड़ा की मधुर कसक सा; हँस उठे विरह ओठों में— प्राणों में एक पुलक सा। पाने में तुमको खोऊँ खोने में समझूँ पाना; यह चिर अतृप्ति हो जीवन चिर तृष्णा हो मिट जाना! गूँथे विषाद के मोती चाँदी की स्मित के डोरे; हों मेरे लक्ष्य-क्षितिज की आलोक तिमिर दो छोरें।

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