रश्मि (कविता)
चुभते ही तेरा अरुण बान! बहते कन कन से फूट फूट, मधु के निर्झर से सजल गान। इन कनक रश्मियों में अथाह, लेता हिलोर तम-सिन्धु जाग; बुदबुद से बह चलते अपार, उसमें विहगों के मधुर राग; बनती प्रवाल का मृदुल कूल, जो क्षितिज-रेख थी कुहर-म्लान। नव कुन्द-कुसुम से मेघ-पुंज, बन गए इन्द्रधनुषी वितान; दे मृदु कलियों की चटक, ताल, हिम-बिन्दु नचाती तरल प्राण; धो स्वर्णप्रात में तिमिरगात, दुहराते अलि निशि-मूक तान। सौरभ का फैला केश-जाल, करतीं समीरपरियां विहार; गीलीकेसर-मद झूम झूम, पीते तितली के नव कुमार; मर्मर का मधु-संगीत छेड़, देते हैं हिल पल्लव अजान! फैला अपने मृदु स्वप्न पंख, उड़ गई नींदनिशि क्षितिज-पार; अधखुले दृगों के कंजकोष-- पर छाया विस्मृति का खुमार; रंग रहा हृदय ले अश्रु हास, यह चतुर चितेरा सुधि विहान!

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