जीवन
तुहिन के पुलिनों पर छबिमान, किसी मधुदिन की लहर समान; स्वप्न की प्रतिमा पर अनजान, वेदना का ज्यों छाया-दान; विश्व में यह भोला जीवन— स्वप्न जागृति का मूक मिलन, बांध अंचल में विस्मृतिधन, कर रहा किसका अन्वेषण? धूलि के कण में नभ सी चाह, बिन्दु में दुख का जलधि अथाह, एक स्पन्दन में स्वप्न अपार, एक पल असफलता का भार; सांस में अनुतापों का दाह, कल्पना का अविराम प्रवाह; यही तो है इसके लघु प्राण, शाप वरदानों के सन्धान! भरे उर में छबि का मधुमास, दृगों में अश्रु अधर में हास, ले रहा किसका पावसप्यार, विपुल लघु प्राणों में अवतार? नील नभ का असीम विस्तार, अनल के धूमिल कण दो चार, सलिल से निर्भर वीचि-विलास मन्द मलयानिल से उच्छ्वास, धरा से ले परमाणु उधार, किया किसने मानव साकार? दृगों में सोते हैं अज्ञात निदाघों के दिन पावस-रात; सुधा का मधु हाला का राग, व्यथा के घन अतृप्ति की आग। छिपे मानस में पवि नवनीत, निमिष की गति निर्झर के गीत, अश्रु की उर्म्मि हास का वात, कुहू का तम माधव का प्रात। हो गये क्या उर में वपुमान, क्षुद्रता रज की नभ का मान, स्वर्ग की छबि रौरव की छाँह, शीत हिम की बाड़व का दाह? और—यह विस्मय का संसार, अखिल वैभव का राजकुमार, धूलि में क्यों खिलकर नादान, उसी में होता अन्तर्धान? काल के प्याले में अभिनव, ढाल जीवन का मधु आसव, नाश के हिम अधरों से, मौन, लगा देता है आकर कौन? बिखर कर कन कन के लघुप्राण, गुनगुनाते रहते यह तान, “अमरता है जीवन का ह्रास, मृत्यु जीवन का परम विकास”। दूर है अपना लक्ष्य महान, एक जीवन पग एक समान; अलक्षित परिवर्तन की डोर, खींचती हमें इष्ट की ओर। छिपा कर उर में निकट प्रभात, गहनतम होती पिछली रात; सघन वारिद अम्बर से छूट, सफल होते जल-कण में फूट। स्निग्ध अपना जीवन कर क्षार, दीप करता आलोक-प्रसार; गला कर मृतपिण्डों में प्राण, बीज करता असंख्य निर्माण। सृष्टि का है यह अमिट विधान, एक मिटने में सौ वरदान, नष्ट कब अणु का हुआ प्रयास, विफलता में है पूर्ति-विकास।

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