दुःख
रजतरश्मियों की छाया में धूमिल घन सा वह आता; इस निदाघ के मानस में करुणा के स्रोत बहा जाता। उसमें मर्म छिपा जीवन का, एक तार अगणित कम्पन का, एक सूत्र सबके बन्धन का, संसृति के सूने पृष्ठों में करुणकाव्य वह लिख जाता। वह उर में आता बन पाहुन, कहता मन से, अब न कृपण बन, मानस की निधियां लेता गिन, दृग-द्वारों को खोल विश्वभिक्षुक पर, हँस बरसा आता। यह जग है विस्मय से निर्मित, मूक पथिक आते जाते नित, नहीं प्राण प्राणों से परिचित, यह उनका संकेत नहीं जिसके बिन विनिमय हो पाता। मृगमरीचिका के चिर पथ पर, सुख आता प्यासों के पग धर, रुद्ध हृदय के पट लेता कर, गर्वित कहता ’मैं मधु हूँ मुझसे क्या पतझर का नाता’। दुख के पद छू बहते झर झर, कण कण से आँसू के निर्झर, हो उठता जीवन मृदु उर्वर, लघु मानस में वह असीम जग को आमन्त्रित कर लाता।

Read Next