यह संध्या फूली सजीली!
आज बुलाती हैं विहगों को नीड़ें बिन बोले;
रजनी ने नीलम-मन्दिर के वातायन खोले;
एक सुनहली उर्म्मि क्षितिज से टकराई बिखरी,
तम ने बढ़कर बीन लिए, वे लघु कण बिन तोले!
अनिल ने मधु-मदिरा पी ली!
मुरझाया वह कंज बना जो मोती का दोना,
पाया जिसने प्रात उसी को है अब कुछ खोना;
आज सुनहली रेणु मली सस्मित गोधूली ने;
रजनीगंधा आँज रही है नयनों में सोना!