हुई विद्रुम बेला नीली
मेरी चितवन खींच गगन के कितने रँग लाई ! शतरंगों के इन्द्रधनुष-सी स्मृति उर में छाई; राग-विरागों के दोनों तट मेरे प्राणों में, श्वासें छूतीं एक, अगर निःश्वासें छू आईं ! अधर सस्मित पलकें गीली ! भाती तम की मुक्ति नहीं, प्रिय रोगों का बन्धन; उड़ कर फिर लौट रहे हैं लघु उर में स्पन्दन; क्या जीने का मर्म यहाँ मिट मिट सब ने जाना? तर जाने को मृत्यु कहा क्यों बहने को जीवन?

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