सृष्टि मिटने पर गर्वीली
रश्मि चुभते ही तेरा अरुण बान ! बहते कन-कन से फूट-फूट, मधु के निर्झर से सजग गान! इन कनक-रश्मियों में अथाह; लेता हिलोर तम-सिंधु जाग; बुदबुद् से बह चलते अपार, उसमें विहगों के मधुर राग; बनती प्रवाल का मृदुल कूल, जो क्षितिज-रेख थी कुहर-म्लान ! नव कुन्द-कुसुम से मेघ-पुंज, बन गए इन्द्रधनुषी वितान; दे मृदु कलियों की चटख, ताल, हिम-बिन्दु नचाती तरल प्राण; धो स्वर्ण-प्रात में तिमिर-गात, दुहराते अलि निशि-मूक तान ! सौरभ का फैला केश-जाल, करतीं समीर-परियाँ विहार; गीली केसर-मद झूम झूम, पीते तितिली के नव कुमार; मर्मर का मधु संगीत छेड़- देते हैं हिल पल्लव अजान ! फैला अपने मृदु स्वप्न-पंख, उड़ गई नींद-निशि-क्षितिज-पार; अधखुले दृगों के कज-कोष- पर छाया विस्मृति का खुमार; रँग रहा हृदय ले अश्रु-हास, यह चतुर चितेरा सुधि-विहान !

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