वाह पाटलिपुत्र !
क्षुब्ध गंगा की तरंगों के दुसह आघात... शोख पुरवइया हवा की थपकियों के स्पर्श... खा रही है किशोरों की लाश... --हाय गांधी घाट ! --हाय पाटलिपुत्र ! दियारा है सामने उस पार पीठ पीछे शहर है इस पार आज ही मैं निकल आया क्यों भला इस ओर ? दे रहा है मात मति को दॄश्य अति बीभत्स यह घनघोर । भागने को कर रही है बाध्य सड़ी-सूजी लाश की दुर्गन्ध मर चुका है हवाखोरी का सहज उत्साह वह गंगा, वाह ! वाह पाटलिपुत्र !

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