महाभिनिष्क्रमण से पूर्व
कि इतने में आ पहुँचा एक वृद्ध ब्राह्मण, लकुटी वह टेक उठाकर कंपित दहिना हाथ लगा कहने जय हो गणराज नंदिनवर्धन लिच्छविकुल केतु। सुखी हो दोनों, हो अतिदीर्घ वीरवर वर्धमान की आयु सुधीजन का मानस जलजात कहाँ है अनुज तुम्हारा तात ? स्पर्श कर उसका मस्तक आज चाहता देना आशीर्वाद छू चुकी है अब मेरी आयु वत्स, जीवन का अन्तिम छोर सकूँगा देख न, कर लूँ स्पर्श ज्योति पाये आँखों की कोर याद आता रह रह छविमान सुरक्षित चम्पक-तरु-उपमान स्नेह विह्वल सुन द्विज की बात हो गया द्रवितवीर का चित्त उठीं आँखें अग्रज की ओर मिला तत्क्षण इंगित अनुकूल बढ़े सुकुमार सँभाल दुकल सिंह गति से आकर नजदीक कुब्ज कंधे पर रखकर हाथ कहा, कहा, या लो, मैं आया तात स्पर्श में है क्या ऐसी बात ! म्लान पंकज के दल की भाँति विप्र के होठों की वह कांति हो उठी थी भास्वर क्षण मात्र हो उठा था पुलकित कृश गात्र टेक लकुटी पर दोनों हाथ और हाथों पर ठोड़ी टेक रहा गुम थोड़ी देर विवेक बुढ़ापा खड़ा रहा साकार स्वयं जाने क्या चीज निहार सभी चुप थे, सब थे निःस्तब्ध धरा थी मौन, गगन था मौन प्रकृति थी स्रमित बोलता कौन वृद्ध ब्राह्मण का भावावेश बन गया सहसा अश्रु प्रवाह धँसी गालों की सीमा लाँघ गिरी भू पर बूँदों की माल तोड़कर फिर वज्रोपम मौन बीरवर बोले, ! मत रोओ विप्र बता दो आखिर क्या है बात ? तोड़कर क्यों धीरज का बाँध हुआ है प्रकट तरल आवेग ? कौन सी व्यथा, कौन सा खेद रहे हैं तुमको तात कुरेद ? लतापत्रांकित पट-परिधान रहा था कंधे पर से झूल उठाकर उसका छोर कुमार पोंछने लगे विप्र के नेत्र स्नेह पाकर, होकर आश्वस्त बीर के सिर पर धर कर हाथ उठाकर ऊपर धुँधली दृष्टि लटकती भौंहों पर बल डाल वृद्ध बोला, कुछ क्षण उपरान्त : तात देखा है मैंने स्वप्न कि तुम निकले हो सब कुछ छोड़ स्वजन-परिजन से नाता तोड़ हुए हो बिलकुल बे घर बार जन्म और मृत्यु जरा औ’ रोग अविद्या, भव, तृष्णा अज्ञान सभी को कर डाला निर्मूल नहीं है शूल, नहीं है फूल किया है तप ऐसा घनघोर कि यश फैला है चारों ओर परे करके सुख-सुविधा-भोग शरण आए हैं लाखों लोग तात, देखा है मैंने स्वप्न कि ऐरावत पर चढ़ आए देवेन्द्र गगन से उतरा है चुपचाप तुम्हारे पास पहुँचकर आप परिक्रमाएँ की हैं दो-तीन उतरासंग एकांस लिए- वन्दना की है घुटने टेक और फिर तेरे सिर पर वत्स तान डाला है अपना छत्र (अकर्णिक कांचनमय शतपत्र रहा ज्यों नभ में उलटा झूल) किंतु तुम शांत दांत अ-विकार रहे पहले की भाँति निहार अचंचल हैं दृग थिर हैं ठोर न उठती है किंचित हिलकोर देख आकृति निःस्पृह निरेपक्ष इन्द्र को होता है आश्चर्य लौट जाता है वह तत्काल धरा फटती गिरता है वज्र दिशाओं से उठते तूफान किंतु तुम लोकाचल के तुल्य डटे हो अडिग अटल अविकंप स्वप्न देखा है पिछली रात बताओ यह सब क्या है तात ? नहीं सुन सके, उठे तत्काल नंदिवर्धन को दिखा अनिष्ट कुँवर से कहा पकड़कर हाथ तात बकता है जो यह वृद्ध न देना उस पर कुछ भी ध्यान टहलने चलें, चलो उद्यान जामु, लीची, कटहल औ’ आम शलीफा, कदलीथंभ ललाम... गणों में ज्यों हम लिच्छवि श्रेष्ठ फरों में त्यों यह राजा आम बहुत बैठे हम आयुष्मान ! टहलने चलें, चलो उद्यान नहीं सुन लेते तुम भी अहा उठाकर आँख वीर ने कहा वृद्ध ब्राह्मण आए हैं तात सुनो कर लेने दो, दो बात शान्त होगा इनका भी हृदय पुण्य मेरा भी होगा उदय टहल आओ तुम देव अवश्य चित्त होता हो यदि उद्विग्न देखकर आगत संध्याकाल बाग-उपवन-पोखर-तालाब नदी-तट, पथ-पांतर, वन-खेत पेड़-पौधे, लतिकाएँ-घास ग्राम की हद, अभिजन-सीमान्त प्रतीक्षा में रहते, तल्लीन कि प्रात काल कि सायंकाल देखने आएगा भूपाल पिता वह, हम सब हैं सन्तान टहल आओ, जाओ तुम तात हमें कर लेने दो कुछ बात

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