झंकार (कविता)
इस शरीर की सकल शिराएँ हों तेरी तन्त्री के तार, आघातों की क्या चिन्ता है, उठने दे ऊँची झंकार। नाचे नियति, प्रकृति सुर साधे, सब सुर हों सजीव, साकार, देश देश में, काल काल में उठे गमक गहरी गुंजार। कर प्रहार, हाँ, कर प्रहार तू मार नहीं यह तो है प्यार, प्यारे, और कहूँ क्या तुझसे, प्रस्तुत हूँ मैं, हूँ तैयार। मेरे तार तार से तेरी तान तान का हो बिस्तार। अपनी अंगुली के धक्के से खोल अखिल श्रुतियों के द्वार। ताल ताल पर भाल झुका कर मोहित हों सब बारम्बार, लय बँध जाय और क्रम क्रम से सम में समा जाय संसार॥

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