असन्तोष
नहीं, मुझे सन्तोष नहीं। मिथ्या मेरा घोष नहीं। वह देता जाता है ज्यों ज्यों, लोभ वृद्धि पाता है त्यों त्यों, नहीं वृत्ति-घातक मैं, उस घन का चातक मैं, जिसमें रस है रोष नहीं। नहीं, मुझे सन्तोष नहीं। पाकर वैसा देने वाला— शान्त रहे क्या लेने वाला ? मेरा मन न रुकेगा, उसका मन न चुकेगा, क्या वह अक्षय-कोष नहीं ? नहीं, मुझे सन्तोष नहीं। माँगू क्यों न उसी को अब, एक साथ पाजाऊँ सब, पूरा दानी जब हो कोर-कसर क्यों तब हो ? मेरा कोई दोष नहीं। नहीं, मुझे सन्तोष नहीं।

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