जीवन का अस्तित्व
जीव, हुई है तुझको भ्रान्ति; शान्ति नहीं, यह तो है श्रान्ति ! अरे, किवाड़ खोल, उठ, कब से मैं हूँ तेरे लिए खड़ा, सोच रहा है क्या मन ही मन मृतक-तुल्य तू पड़ा पड़ा। बढ़ती ही जाती है क्लान्ति, शान्ति नहीं, यह तो है श्रान्ति ! अपने आप घिरा बैठा है तू छोटे से घेरे में, नहीं ऊबता है क्या तेरा जी भी इस अन्धेरे में ? मची हुई है नीरव क्रान्ति, शान्ति नहीं, यह तो है श्रान्ति ! द्वार बन्द करके भी तू है चैन नहीं पाता डर से, तेरे भीतर चोर घुसा है, उसको तो निकाल घर से। चुरा रहा है वह कृति-कान्ति, शान्ति नहीं, यह तो है श्रान्ति ! जिस जीवन के रक्षणार्थ है तूने यह सब ढंग रचा, होकर यों अवसन्न और जड़ वह पहले ही कहाँ बचा ? जीवन का अस्तित्व अशान्ति, शान्ति नहीं, यह तो है श्रान्ति !

Read Next