सतत अपने तरल कोर के संस्पर्शों से,
काट रही है दृढ़ कगार को जल की धारा।
साँसे लेता हुआ समीरण प्रश्वासों से,
तोड़ रहा है कण-कण का संसर्ग सहारा।
फूले खेतों से फिर भी फूली है छाती,
सरसों को उसने, सरसों ने उसे सँवारा।
देख रहा हूँ उसे देख कर मैं अपने को,
भूल रहा हूँ अन्त काल का मैं अंधियारा।