वायु चली अविजेय सैन्य की
हलचल दौड़ी
नीड़ों से निकले प्रभात के जागे पंछी,
पंख पसारे फैल गई ललकार लहर की,
धुँआ नहीं यह जमा हुआ
जीवन पिघला है दिशा-दिशा में,
फन काढ़े फुफकार-क्रूर-संहार
शिलाओं पर उमड़ा है,
नत होंगे ही अब अवनत
प्रलंयकर दानव,
हत होंगे ही अब अनहत
प्रलयंकर दानव,
आग-राग-रंजित स्वदेश का
महावीर का रक्तवेश है;
उत्तर के संकट से लड़ कर
जय पाने को प्राण शेष है।