छिपी भी
छिपी भी न छिपी रह सकी हो तुम भावों में अपने खुल गई हो तुम, जैसे खुल गई आँख सजीव स्वप्न से भरी चांदनी दर्पण में कोई देखे, या न देखे, मैं देखता हूँ तुम्हें। मौन भी न मौन रह सकी हो तुम वसन्त में अपने मुखर हो गई हो तुम जैसे मुखर शंख-से बजते रंग फूल की मौन पंखुरियों से, कोई सुने या न सुने, मैं सुनता हूँ तुम्हें।

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