सागर तट पर
देह मिली हो पानी-ही-पानी की तुमको! इसी देह से तरुण तरंगित घोड़ों को तुम बे लगाम दौड़ाते हो, और, चौकड़ी भरते हिरनों की रंगरेली दिखलाते हो, नीलकाय तुम श्वेतकाय हो फेन-फेन बन जाते हो किंतु चेतना नहीं प्राप्त कर पाते हो आदिकाल से अब तक केवल प्राकृत जीवन जीते हो महासिंधु-सागर-पयोधि, बस, कहलाते हो, आज तुम्हारे तट पर आकर, मैंने तुमको अपनाया है, और तुम्हारी ऊर्जा को अपनी ऊर्जा में बदल लिया है अब मैं बूढ़ा महाकाल से नहीं डरूँगा लड़ते-लड़ते, जीते-जीते नहीं मरूँगा।

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