दिक्काल का भोक्ता अहं
दिक् काल का भोक्ता अहं जब निजत्व की इकाई होकर, दिक्-काल का निषेध कर, खोखली आत्मवत्ता में स्वयं समाया होता है तब वह नवाचारी होकर- अनाचारी होकर- मानवीय बोध से वंचित और विरत होता है विशाल वटवृक्ष से टूटकर गिरा पत्ता होता है, निरवलम्ब होता है, इधर-से-उधर- दिशा दृष्टिहीन उड़ने-भटकने को मजबूर होता है।

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