सुबह
सुबह! न निकले सूर्य की केवल, उत्तर के केसरिया रंग की- आ बैठी मेरी आँखों में और मुझे अपनाए है। मैं उसका हूँ, वो मेरी है, दिशा-दिशा में, रोम-रोम में, पुलक व्याप्त है। अब, ज्यों ही सूरज निकलेगा मैं स्वागत तत्काल करूँगा लोकालोकित लय में दिन भर सृजन करूँगा, रवि-रंजित जीवंत जिऊँगा।

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