कैद है आदमी का सूरज
कैद है आदमी का सूरज आदमी की कोठरी में, आदमी के साथ। न देश-बोध होता है जहाँ- न काल-बोध, न कर्म-बोध होता है जहाँ- न सृष्टि-बोध। न आदमी रहता है जहाँ आदमी, न सूरज रहता है जहाँ सूरज, हविष्य होते हैं जहाँ दोनों- आदमी और सूरज कपाट बंद कोठरी में।

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