मेरा पता
स्मित तुम्हारी से छलक यह ज्योत्स्ना अम्लान, जान कब पाई हुआ उसका कहां निर्माण! अचल पलकों में जड़ी सी तारकायें दीन, ढूँढती अपना पता विस्मित निमेषविहीन। गगन जो तेरे विशद अवसाद का आभास, पूछ्ता ’किसने दिया यह नीलिमा का न्यास’। निठुर क्यों फैला दिया यह उलझनों का जाल, आप अपने को जहां सब ढूँढते बेहाल। काल-सीमा-हीन सूने में रहस्यनिधान! मूर्तिमत कर वेदना तुमने गढ़े जो प्राण; धूलि के कण में उन्हें बन्दी बना अभिराम, पूछते हो अब अपरिचित से उन्हीं का नाम! पूछ्ता क्या दीप है आलोक का आवास? सिन्धु को कब खोजने लहरें उड़ी आकाश! धड़कनों से पूछ्ता है क्या हृदय पहिचान? क्या कभी कलिका रही मकरन्द से अनजान? क्या पता देते घनों को वारि-बिन्दु असार? क्या नहीं दृग जानते निज आँसुवों का भार? चाह की मृदु उंगलियों ने छू हृदय के तार, जो तुम्हीं में छेड़ दी मैं हूँ वही झंकार? नींद के नभ में तुम्हारे स्वप्नपावस-काल, आँकता जिसको वही मैं इन्द्रधनु हूँ बाल। तृप्तिप्याले में तुम्हीं ने साध का मधु घोल, है जिसे छलका दिया मैं वही बिन्दु अमोल। तोड़ कर वह मुकुर जिसमें रूप करता लास, पूछ्ता आधार क्या प्रतिबिम्ब का आवास? उर्म्मियों में झूलता राकेश का अभास, दूर होकर क्या नहीं है इन्दु के ही पास? इन हमारे आँसुवों में बरसते सविलास-- जानते हो क्या नहीं किसके तरल उच्छवास? इस हमारी खोज में इस वेदना में मौन, जानते हो खोजता है पूर्ति अपनी कौन? यह हमारे अन्त उपक्रम यह पराजय जीत, क्या नहीं रचता तुम्हारी सांस का संगीत? पूछ्ते फिर किसलिए मेरा पता बेपीर! हृदय की धड़कन मिली है क्या हृदय को चीर?

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