विरह की घडियाँ हुई अलि
विरह की घडियाँ हुई अलि मधुर मधु की यामिनी सी! दूर के नक्षत्र लगते पुतलियों से पास प्रियतर, शून्य नभ की मूकता में गूँजता आह्वान का स्वर, आज है नि:सीमता लघु प्राण की अनुगामिनी सी! एक स्पन्दन कह रहा है अकथ युग युग की कहानी; हो गया स्मित से मधुर इन लोचनों का क्षार पानी; मूक प्रतिनिश्वास है नव स्वप्न की अनुरागिनी सी! सजनि! अन्तर्हित हुआ है ‘आज में धुँधला विफल ‘कल’ हो गया है मिलन एकाकार मेरे विरह में मिल; राह मेरी देखतीं स्मृति अब निराश पुजारिनी सी! फैलते हैं सान्ध्य नभ में भाव ही मेरे रँगीले; तिमिर की दीपावली हैं रोम मेरे पुलक-गीले; बन्दिनी बनकर हुई मैं बन्धनों की स्वामिनी सी!

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