शलभ मैं शापमय वर हूँ!
शलभ मैं शापमय वर हूँ! किसी का दीप निष्ठुर हूँ! ताज है जलती शिखा चिनगारियाँ श्रृंगारमाला; ज्वाल अक्षय कोष सी अंगार मेरी रंगशाला; नाश में जीवित किसी की साध सुन्दर हूँ! नयन में रह किन्तु जलती पुतलियाँ आगार होंगी; प्राण मैं कैसे बसाऊँ कठिन अग्नि-समाधि होगी; फिर कहाँ पालूँ तुझे मैं मृत्यु-मन्दिर हूँ! हो रहे झर कर दृगों से अग्नि-कण भी क्षार शीतल; पिघलते उर से निकल निश्वास बनते धूम श्यामल; एक ज्वाला के बिना मैं राख का घर हूँ! कौन आया था न जाना स्वप्न में मुझको जगाने; याद में उन अँगुलियों के है मुझे पर युग बिताने; रात के उर में दिवस की चाह का शर हूँ! शून्य मेरा जन्म था अवसान है मूझको सबेरा; प्राण आकुल के लिए संगी मिला केवल अँधेरा; मिलन का मत नाम ले मैं विरह में चिर हूँ!

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