न रही अब कुआँर में
न रही अब कुआँर में बादलों की चिरकुटिया लँगोटी, और सूर्य ने अंतरिक्ष से आँख तरेरी, कि घामड़ घाम अनंत आकाश से नीचे उतरा, जमीन पर नंग-धड़ंग; कि आग बबूला हो गया भूलोक; खड़े-के-खड़े सुलगने लगे पेड़; कि प्यार के परेवा पीड़ित तड़पने लगे, लपट में लिपटे पवन और पानी आह भरने लगे; कि ताव-खाया दिन हो गया कठिन, स्याह हुए मृग, झुलस गए फूलों के दृग, लोग हुए तापित तन म्लान औ’ मलिन।

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