भीतर पैठी
भीतर पैठी चित् में चिन्ता, हिला रही है चीड़ वनों की रीढ़। हाँक रहा- हुंकार मारता- महाकाल भी दिल-दिमाग में गजयूथों की भीड़। मैं बटोरता बूढ़े हाथों चावल के कुछ दाने झरे पेड़ जो मुझे बुलाते यदा-कदा अनजाने।

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