मेरी घड़ी
शान्त है- क्रूस पर टँगे ईसा की तरह दीवार पर टँगी मेरी घड़ी देश-काल से अनभिज्ञ- निरन्तरता से अनवगत खून अब नहीं रह गया खून पहले जैसा मर्मांतक इस जमाने के शरीर में। न दिखा दीवार में यहाँ वहाँ खून- घड़ी के आसपास- घड़ी के घंटों का- छोटी-बड़ी सुइयों का। दोष मेरा है-घड़ी का नहीं, कि मैंने उसे शान्त-निश्चल बनाया, चभी नहीं खिलाई; भूख से मरी, निष्प्राण, मुझको निहारती है खड़ी मेरी घड़ी। यही होता है भूख में : बिना खाए जान जाती है, वक्त से पहले बिना बुलाए मौत आती है। फर्क है इतना आदमी और घड़ी में कि भूखा आदमी देर से मरता है; भूखी घड़ी तत्काल मरती है। मैं पछताया, घड़ी की भूख को मैंने तुरंत मिटाया; चाभी खाते ही चल पड़ी मेरी घड़ी- जान पाकर जी पड़ी। मैंने सुना : टनाटन टनाटन बजे जी उठे चेतना के घंटे। घड़ी अब क्रास पर टँगे ईसा की प्रतिच्छवि नहीं; जी उठी मेरी जिलाई चल पड़ी चेतना की मेरी घड़ी। समय का चक्र अब पूरा करने लगी घड़ी; नवोल्लास से घनन् घनन् बजने लगी मेरी घड़ी; दीवार पर जानदार टँगी मेरी घड़ी।

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