वही-वही
वही-वही पीर और पानी की, प्राकृत कुरबानी की- नेह और नाते की नदिया, गाँव के किनारे से- घर-घर के द्वारे से- निचुड़-निचुड़ बहती है, लरज-गरज सहती है, जग-बीती कहती है।

Read Next