दूर दूर तक
दूर-दूर तक अतल नील से दिक्-प्रसार को चाँपे, सागर सम्मुख झेल रहा है द्वन्द्व-द्वन्द्व के कराघात की जल पर पड़तीं थापें, आदि काल से अब तक-अब तक। जड़ है लेकिन बिना पाँव की लहर-लहर से फेनिल हुआ उछलता, चित् सा चंचल चमक-चमककर चलता; बिना प्रान का पानी-पानी प्रान-प्रान-मय जीवन-गाथा सस्वर उद्वेलन से कहता; आदिम तत्व युगान्तरकारी भाव-बोध से बजता; तट तक आकर- तट पर शीश पटकता; तट से जाकर अगम-अथाह-असीम निरामय हुआ, निरंतर चेतनता के लिए लरजता। लेकिन ज्योंही रंग-रहित आकाश पूर्व का हल्के-गाढ़े रंगों का उजवास पा गया, और सामने क्षितिज-क्षोर पर खड़ी हुई दीवार पारदर्शी शीशे की रंग विरंगे रंगों से रंगीन हो गई; ज्योंही एकाकी बादल का गिरि विदारकर लाल अगिन का कंचन-वर्णी दिनकर उभरा- ऊपर चढ़ता हुआ गगन में लगा बरसने नील-अतल में कंचन-कुंकुम-केसर-रोली, त्योंही सूर्योदय से वंचित नव अनुरंगित सागर, अपनी आदिम देह बदलकर- युगों-युगों की गहरी श्यामलता को तजकर, बाल-वृंद की लीला करता- बाल-वृंद का रूप सँवारे; हर्षित हुआ हिलोरित होता हुआ लहराता, कौतुक-क्रीड़ा करता मन को हरता; हँसते-हँसते रोने लगता; रोते-रोते गाने लगता; गाते-गाते देश-काल का नर्तन करता, वर्तन से परिवर्तन का परिमार्गी बनता।

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