बढ़ते-बढ़ते
बढ़ते-बढ़ते बढ़ गया लोकतंत्री जीवन में आसुरी उत्पात; आतंकित हैं सभी छोटे-बड़े लोग, आसुरी अस्मिता वाले राज दरबार में। होते-होते होने लगे हैं राह चलते हमले- जघन्य-से-जघन्य अपराध; मौत से पहले मारे जाने लगे हैं जवान-जवान लोग। आदमी अब हो गया है काँव-काँव करते कौओं के मुँह का कौर। गाँव और शहर त्रासदी भोगते हैं। देश में देश के लोग, बच-बचाकर, जीने का रास्ता खोजते हैं।

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