धूप-ही-धूप में निकला
धूप-ही-धूप में निकला मेरे पास से काले पहाड़ का हाथी। आश्वस्त कर गया मुझे उस पर सवार मेरी शक्ल का महावत। आतंकित मैं न रहा आतंकित; देह में आ गया मैं- देह का हुआ; हर्ष की हिलोर में नहा गया मैं। चलते चले जाते हैं छोकरे- तालियाँ बजाते- पछियाए, हाथी की सूँड़ को स्वर्ग की नसेनी और कानों को इंद्रपुरी के द्वार बतलाते।

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