विरक्ति के मुंह में
एक और दिन उड़ गया कबूतरी गुटरगूं का। एक और शाम ढल गई गुलाब पंखुरियों की। एक और रात रो गई ओस के मोतियों की। अब तक अकेला मैं अकेला हूं विरक्ति के मुंह में, त्रिकाल को भोगता, दिन के साथ उड़ता, शाम के साथ ढलता, रात के साथ रोता।

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