हुआ जब सामना उस ख़ूब-रू से
हुआ जब सामना उस ख़ूब-रू से उड़ा है रंग गुल का पहले बू से ये आँखें तर जो रहती हैं लहू से वो गुज़रे इश्क़ के दिन आबरू से इसे कहिए शहादत-नामा-ए-इश्क़ उसे लिक्खा है ख़त अपने लहू से धुआँ बन कर उड़ी मिस्सी की रंगत ये किस ने जल के तेरे होंट चूसे रक़ीबों को तमन्ना है तो बाशुद तुम्हें मतलब पराई आरज़ू से वो गुल-तकिया मिरे मरक़द में रखना मोअत्तर हो जो ज़ुल्फ़-ए-मुश्क-बू से नई ज़िद है कि दिल हम मुफ़्त लेंगे भला क्या फ़ाएदा इस गुफ़्तुगू से अदू भी तुम को चाहे ऐ तिरी शान लड़ाते हैं हम अपनी आरज़ू से हुआ है तू तो शाहिद-बाज़ ऐ दिल बचाऊँ तुझ को किस किस ख़ूब-रू से लगा रखी है ख़ाक उस रहगुज़र की तयम्मुम अपना बढ़ कर है वज़ू से हमारा दिल उसे अब ढूँडता है थके हैं पाँव जिस की जुस्तुजू से ख़ुदा जाने छलावा था कि बिजली अभी निकला है कोई रू-ब-रू से हुआ है 'दाग़' आसिफ़ का नमक-ख़्वार गुज़र जाए इलाही आबरू से

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