मगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़
हम अम्न चाहते हैं मगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़ गर जंग लाज़मी है तो फिर जंग ही सही ज़ालिम को जो न रोके वो शामिल है ज़ुल्म में क़ातिल को जो न टोके वो क़ातिल के साथ है हम सर-ब-कफ़ उठे हैं कि हक़ फ़तह-याब हो कह दो उसे जो लश्कर-ए-बातिल के साथ है इस ढंग पर है ज़ोर तो ये ढंग ही सही ज़ालिम की कोई ज़ात न मज़हब न कोई क़ौम ज़ालिम के लब पे ज़िक्र भी इन का गुनाह है फलती नहीं है शाख़-ए-सितम इस ज़मीन पर तारीख़ जानती है ज़माना गवाह है कुछ कोर-बातिनों की नज़र तंग ही सही ये ज़र की जंग है न ज़मीनों की जंग है ये जंग है बक़ा के उसूलों के वास्ते जो ख़ून हम ने नज़्र दिया है ज़मीन को वो ख़ून है गुलाब के फूलों के वास्ते फूटेगी सुब्ह-ए-अम्न लहू-रंग ही सही

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