सन्ध्या
कहो, तुम रूपसि कौन? व्योम से उतर रही चुपचाप छिपी निज छाया-छबि में आप, सुनहला फैला केश-कलाप,-- मधुर, मंथर, मृदु, मौन! मूँद अधरों में मधुपालाप, पलक में निमिष, पदों में चाप, भाव-संकुल, बंकिम, भ्रू-चाप, मौन, केवल तुम मौन! ग्रीव तिर्यक, चम्पक-द्युति गात, नयन मुकुलित, नत मुख-जलजात, देह छबि-छाया में दिन-रात, कहाँ रहती तुम कौन? अनिल पुलकित स्वर्णांचल लोल, मधुर नूपुर-ध्वनि खग-कुल-रोल, सीप-से जलदों के पर खोल, उड़ रही नभ में मौन! लाज से अरुण-अरुण सुकपोल, मदिर अधरों की सुरा अमोल,-- बने पावस-घन स्वर्ण-हिंदोल, कहो, एकाकिनि, कौन? मधुर, मंथर तुम मौन?

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