रसखान के दोहे
प्रेम प्रेम सब कोउ कहत, प्रेम न जानत कोइ। जो जन जानै प्रेम तो, मरै जगत क्यों रोइ॥ कमल तंतु सो छीन अरु, कठिन खड़ग की धार। अति सूधो टढ़ौ बहुरि, प्रेमपंथ अनिवार॥ काम क्रोध मद मोह भय, लोभ द्रोह मात्सर्य। इन सबहीं ते प्रेम है, परे कहत मुनिवर्य॥ बिन गुन जोबन रूप धन, बिन स्वारथ हित जानि। सुद्ध कामना ते रहित, प्रेम सकल रसखानि॥ अति सूक्ष्म कोमल अतिहि, अति पतरौ अति दूर। प्रेम कठिन सब ते सदा, नित इकरस भरपूर॥ प्रेम अगम अनुपम अमित, सागर सरिस बखान। जो आवत एहि ढिग बहुरि, जात नाहिं रसखान॥ भले वृथा करि पचि मरौ, ज्ञान गरूर बढ़ाय। बिना प्रेम फीको सबै, कोटिन कियो उपाय॥ दंपति सुख अरु विषय रस, पूजा निष्ठा ध्यान। इन हे परे बखानिये, सुद्ध प्रेम रसखान॥ प्रेम रूप दर्पण अहे, रचै अजूबो खेल। या में अपनो रूप कछु, लखि परिहै अनमेल॥ हरि के सब आधीन पै, हरी प्रेम आधीन। याही ते हरि आपु ही, याहि बड़प्पन दीन॥

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