राजू और काजू
एक था राजू, एक था काजू दोनों पक्के यार, इक दूजे के थामे बाजू जा पहुँचे बाजार! भीड़ लगी थी धक्कम-धक्का देखके रह गए हक्का-बक्का! इधर-उधर वह लगे ताकने, यहाँ झाँकने, वहाँ झाँकने! इधर दूकानें, उधर दूकानें, अंदर और बाहर दूकानें। पटरी पर छोटी दूकानें, बिल्डिंग में मोटी दूकानें। सभी जगह पर भरे पड़े थे दीए और पटाखे, फुलझड़ियाँ, सुरीं, हवाइयाँ गोले और चटाखे। राजू ने लीं कुछ फुलझड़ियाँ कुछ दीए, कुछ बाती, बोला, ‘मुझको रंग-बिरंगी बत्ती ही है भाती।’ काजू बोला, ‘हम तो भइया लेंगे बम और गोले, इतना शोर मचाएँगे कि तोबा हर कोई बोले!’ दोनों घर को लौटे और दोनों ने खेल चलाए, एक ने बम के गोले छोड़े एक ने दीप जलाए। काजू के बम-गोले फटकर मिनट में हो गए ख़ाक, पर राजू के दीया-बाती जले देर तक रात।
दुनिया सबकी

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