नेताओं को न्यौता!
लीडर जी, परनाम तुम्हें हम मज़दूरों का, हो न्यौता स्वीकार तुम्हें हम मज़दूरों का; एक बार इन गन्दी गलियों में भी आओ, घूमे दिल्ली-शिमला, घूम यहाँ भी जाओ! जिस दिन आओ चिट्ठी भर लिख देना हमको हम सब लेंगे घेर रेल के इस्टेशन को; 'इन्क़लाब' के नारों से, जय-जयकारों से-- ख़ूब करेंगे स्वागत फूलों से, हारों से ! दर्शन के हित होगी भीड़, न घबरा जाना, अपने अनुगामी लोगों पर मत झुंझलाना; हाँ, इस बार उतर गाड़ी से बैठ कार पर चले न जाना छोड़ हमें बिरला जी के घर ! चलना साथ हमारे वरली की चालों में, या धारवि के उन गंदे सड़ते नालों में-- जहाँ हमारी उन मज़दूरों की बस्ती है, जिनके बल पर तुम नेता हो, यह हस्ती है ! हम तुमको ले साथ चलेंगे उस दुनिया में, सुकुमारी बम्बई पली है जिस दुनिया में, यह बम्बई, आज है जो जन-जन को प्यारी, देसी - परदेसी के मन की राजदुलारी ! हम तुमको ले साथ चलेंगे उस दुनिया में, नवयुवती बम्बई पली है जिस दुनिया में, किन्तु, न इस दुनिया को तुम ससुराल समझना, बन दामाद न अधिकारों के लिए उलझना । हमसे जैसा बने, सब सत्कार करेंगे-- ग़ैर करें बदनाम, न ऐसे काम करेंगे, हाँ, हो जाए भूल-चूक तो नाम न धरना, माफ़ी देना नेता, मन मैला मत करना। जैसे ही हम तुमको ले पहुँचेंगे घर में, हलचल सी मच जाएगी उस बस्ती भर में, कानाफूसी फैल जाएगी नेता आए-- गांधी टोपी वाले वीर विजेता आए । खद्दर धारी, आज़ादी पर मरने वाले गोरों की फ़ौज़ों से सदा न डरने वाले वे नेता जो सदा जेल में ही सड़ते थे लेकिन जुल्मों के ख़िलाफ़ फिर भी लड़ते थे । वे नेता, बस जिनके एक इशारे भर से-- कट कर गिर सकते थे शीश अलग हो धड़ से, जिनकी एक पुकार ख़ून से रंगती धरती, लाशों-ही-लाशों से पट जाती यह धरती । शासन की अब बागडोर जिनके हाथों में, है जनता का भाग्य आज जिनके हाथों में । कानाफूसी फैल जाएगी नेता आए-- गांधी टोपी वाले शासक नेता आए । घिर आएगी तुम्हें देखने बस्ती सारी, बादल दल से उमड़ पड़ेंगे सब नर-नारी, पंजों पर हो खड़े, उठा बदन, उझक कर, लोग देखने आवेंगे धक्का-मुक्की कर । टुकुर-मुकुर ताकेंगे तुमको बच्चे सारे, शंकर, लीला, मधुकर, धोंडू, राम पगारे, जुम्मन का नाती करीम, नज्मा बुद्धन की, अस्सी बरसी गुस्सेवर बुढ़िया अच्छन की । वे सब बच्चे पहन चीथड़े, मिट्टी साने, वे बूढ़े-बुढ़िया, जिनके लद चुके ज़माने, और युवकगण जिनकी रग में गरम ख़ून है, रह-रह उफ़ न उबल पड़ता है, नया ख़ून है । घिर आएगी तुम्हें देखने बस्ती सारी, बादल दल से उमड़ पड़ेंगे सब नर-नारी, हेच काय रे कानाफूसी यह फैल जाएगी, हर्ष क्षोभ की लहर मुखों पर दौड़ जाएगी । हाँ, देखो आ गया ध्यान बन आए न संकट, बस्ती के अधिकांश लोग हैं बिलकुल मुँहफट, ऊँच-नीच का जैसे उनको ज्ञान नहीं है, नेताओं के प्रति अब वह सम्मान नहीं है । उनका कहना है, यह कैसी आज़ादी है, वही ढाक के तीन पात हैं, बरबादी है, तुम किसान-मज़दूरों पर गोली चलवाओ, और पहन लो खद्दर, देशभक्त कहलाओ । तुम सेठों के संग पेट जनता का काटो, तिस पर आज़ादी की सौ-सौ बातें छाँटो । हमें न छल पाएगी यह कोरी आज़ादी, उठ री, उठ, मज़दूर-किसानों की आबादी । हो सकता है, कड़वी-खरी कहें वे तुमसे, उन्हें ज़रा मतभेद हो गया है अब तुमसे, लेकिन तुम सहसा उन पर गुस्सा मत होना, लाएँगे वे जनता का ही रोना-धोना । वे सब हैं जोशीले, किन्तु अशिष्ट नहीं हैं, करें तुमसे बैर, उन्हें यह इष्ट नहीं है, वे तो दुनिया बदल डालने को निकले हैं, हिन्दू, मुस्लिम, सिख, पारसी, सभी मिले हैं । फिर, जब दावत दी है तो सत्कार करेंगे, ग़ैर करें बदनाम, न ऐसे काम करेंगे, हाँ, हो जाए भूल-चूक तो नाम न धरना, माफ़ी देना नेता, मन मैला मत करना ।

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