निंदिया
पास देख अनजान अतिथि को-- दबे पाँव दरवाज़े तक आ, लौट गई निंदिया शर्मीली! दिन भर रहता व्यस्त, भला फुर्सत ही कब है? कब आएँ बचपन के बिछुड़े संगी-साथी, बुला उन्हें लाता अतीत बस बीत बातचीत में जाती शून्य रात की घड़ियाँ आधी और झाँक खिड़की से जब तब लौट-लौट जाती बचारी नींद लजीली! रजनी घूम चुकी है, सूने जग का थककर चूर भूल मंज़िल अब सोता है पंथी भी मग का कब से मैं बाहें फैलाए जलती पलकें बिछा बुलाता आजा निंदिया, अब तो आजा! किन्तु न आती, रूठ गई है नींद हठीली!

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