कौन मिलनातुर नहीं है ?
आक्षितिज फैली हुई मिट्टी निरन्तर पूछती है, कब कटेगा, बोल, तेरी चेतना का शाप, और तू हों लीन मुझमे फिर बनेगा शान्त ? कौन मिलनातुर नहीं है ? गगन की निर्बन्ध बहती वायु प्रति पल पूछती है, कब गिरेगी, टूट, तेरी देह की दीवार, और तू हों लीन मुझमे फिर बनेगा मुक्त ? कौन मिलनातुर नहीं है ? सर्व व्यापी विश्व का व्यक्तित्व प्रति क्षण पूछता है, कब मिटेगा, बोल, तेरे अहं का अभिमान, और तू हों लीन मुझमे फिर बनेगा पूर्ण ? कौन मिलनातुर नहीं है ?

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