तन के सौ सुख, सौ सुविधा में मेरा मन बनवास दिया-सा
तन के सौ सुख, सौ सुविधा में मेरा मन बनवास दिया-सा। महलों का मेहमान जिस तरह तृण कुटिया वह भूल न पाए जिसमें उसने हों बचपन के नैसर्गिक निशि-दिवस बिताए, मैं घर की ले याद करकती भड़कीले साजों में बंदी, तन के सौ सुख, सौ सुविधा में मेरा मन बनवास दिया-सा। सच, जंजीर नहीं है ऐसी जो चाहूँ तो तोड़ न पाऊँ, राह लौटने की बिसरा दी, फिर किस दिशि को पाँव बढ़ाऊँ, धुँधली-सी आवाज बुलाती ऊपर से, पर पंख कहाँ है, छलना-सी धरती है मुझको और मुझे अंबर छलिया-सा। तन के सौ सुख, सौ सुविधा में मेरा मन बनवास दिया-सा।

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