अब खँड़हर भी टूट रहा है!
गायन से गुंजित दीवारें,
दिखलाती हैं दीर्घ दरारें,
जिनसे करुण, कर्णकटु, कर्कश, भयकारी स्वर फूट रहा है!
अब खँड़हर भी टूट रहा है!
बीते युग की कौन निशानी,
शेष रही थी आज मिटानी?
किंतु काल की इच्छा ही तो, लुटे हुए को लूट रहा है!
अब खँड़हर भी टूट रहा है!
महानाश में महासृजन है,
महामरण में ही जीवन है,
था विश्वास कभी मेरा भी, किंतु आज तो छूट रहा है!
अब खँड़हर भी टूट रहा है!