वेदना भगा
वेदना भगा, जो उर के अंदर आते ही सुरसा-सा बदन बढ़ाती है, सारी आशा-अभिलाषा को पल के अंदर खा जाती है, पी जाती है मानस का रस जीवन शव-सा कर देती है, दुनिया के कोने-कोने को निज क्रंदन से भर देती है। इसकी संक्रामक वाणी को जो प्राणी पल भर सुनता है, वह सारा साहस-बल खोकर युग-युग अपना सर धुनता है; यह बड़ी अशुचि रुचि वाली है संतोष इसे तब होता है, जब जग इसका साथी बनकर इसके रोदन में रोता है। वेदना जगा, जो जीवन के अंदर आकर इस तरह हृदय में जाय व्याप, बन जाय हृदय होकर विशाल मानव-दुख-मापक दंड़-माप; जो जले मगर जिसकी ज्वाला प्रज्जवलित करे ऐसा विरोध, जो मानव के प्रति किए गए अत्याचारों का करे शोध; पर अगर किसी दुर्बलता से यह ताप न अपना रख पाए, तो अपने बुझने से पहले औरों में आग लगा जाए; यह स्वस्थ आग, यह स्वस्थ जलन जीवन में सबको प्यारी हो, इसमें जल निर्मल होने का मानव-मानव अधिकारी हो!

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