मध्य निशा में पंछी बोला!
ध्वनित धरातल और गगन है,
राग नहीं है, यह क्रंदन है,
टूटे प्यारी नींद किसी की, इसने कंठ करुण निज खोला!
मध्य निशा में पंछी बोला!
निश्चित गाने का अवसर है,
सीमित रोने को निज घर है,
ध्यान मुझे जग का रखना है, धिक मेरा मानव तन चोला!
मध्य निशा में पंछी बोला!
कितनी रातों को मन मेरा,
चाहा, कर दूँ चीख सबेरा,
पर मैंने अपनी पीड़ा को चुप-चुप अश्रुकणों में घोला!
मध्य निशा में पंछी बोला!