हाय, क्या जीवन यही था।
एक बिजली की झलक में
स्वप्न औ’ रस-रूप दीखा,
हाथ फैले तो मुझे निज हाथ भी दिखता नहीं था।
हाय क्या जीवन यही था।
एक झोंके ने गगन के
तारकों में जा बिठाया,
मुट्ठियाँ खोलीं, सिवा कुछ कंकड़ों के कुछ नहीं था।
हाय क्या जीवन यही था।
मैं पुलक उठता न सुख से
दुःख से तो क्षुब्ध होता,
इस तरह निर्लिप्त होना लक्ष्य तो मेरा नहीं था।
हाय क्या जीवन यही था।